Monday, January 21, 2019

पाकिस्तान डायरी: इमरान खान ने कंगाली के दलदल में धंसे देश का और दिवाला निकाला

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान हाथ पैर तो बहुत मार रहे हैं, लेकिन 'नया पाकिस्तान' बन नहीं पा रहा है, जिसका वादा उन्होंने किया था. हाई फाई विदेश दौरों और लंबे चौड़े दावों के बावजूद सच यही है कि जब से इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से देश की और हालत पतली हो गई है. पाकिस्तानी स्टेट बैंक की रिपोर्ट कहती है कि बीते छह महीने के दौरान देश में होने वाले कुल विदेशी निवेश में रिकॉर्ड 77 प्रतिशत की गिरावट आई है. ऐसे में, पाकिस्तानी मीडिया में इमरान खान की नीतियों पर नुक्ता चीनी हो रही है. अहम बात यह है कि पाकिस्तान में होने वाला चीनी निवेश भी घट रहा है. इसके अलावा कुछ अखबारों ने पाकिस्तान के वित्त मंत्री असद उमर के इस बयान पर भी संपादकीय लिखे हैं कि भारत अपने निजी स्वार्थ छोड़े तो उसे भी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) में शामिल होना चाहिए. पाकिस्तानी अखबार कह रहे हैं कि ऐसा हरगिज नहीं होना चाहिए. वैसे भारत तो खुद ही इस परियोजना का विरोधी है, इसलिए वो भला इसमें क्यों शामिल होने लगा. मतलब 'सूत ना कपास, जुलाहे से लट्ठम लट्ठा.' [caption id="attachment_162084" align="alignnone" width="1002"] कर्ज संकट से घिरे पाकिस्तान आर्थिक मदद के लिए अपने ऑल टाइम फ्रेंड चीन पर निर्भर हो गया है (फोटो: रॉयटर्स)[/caption] खोखले दावे रोजनामा दुनिया ने देश के केंद्रीय बैंक 'स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान' की ताजा रिपोर्ट पर संपाकीय लिखा है जो कहती है कि बीते साल जुलाई से लेकर दिसंबर तक देश में होने वाले कुल विदेशी निवेश में 77 प्रतिशत की कमी आई है जबकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 19 प्रतिशत तक गिर गया है. अखबार कहता है कि इन छह महीनों के दौरान डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपए की कीमत में 30 प्रतिशत कमी आई है, जिसमें से ज्यादातर गिरावट पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ की सरकार के शुरुआती पांच महीने के दौरान आई है. अखबार के मुताबिक, इमरान खान की सरकार ना तो विदेशी निवेश में कोई बढ़ोतरी कर पाई है और ना ही पाकिस्तान से होने वाले निर्यात को बढ़ाया जा सका है. अखबार की टिप्पणी है कि चुनाव से पहले पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी की तरफ से जो मंसूबे पेश किए जाते रहे, अब पांच महीने गुजर जाने के बाद हथेली पर सरसों जमती दिखाई नहीं देती. अखबार के मुताबिक स्टेट बैंक की रिपोर्ट बताती है कि पाकिस्तान के सबसे बड़े व्यापारिक साझीदार चीन के निवेश में भी बीते छह महीने में कमी आई है. जंग के संपादकीय का शीर्षक है: विदेशी निवेश में रिकॉर्ड कमी. अखबार लिखता है कि नई सरकार की तमाम कोशिशों, मित्र देशों से बड़ी मदद हासिल करने में कामयाबियों और सरकार के लंबे चौड़े दावों के बावजूद कड़वी सच्चाई यही है कि देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में अभी बहुत वक्त लगेगा और इसके लिए बहुत कुछ करना होगा. अखबार की राय में, अगर किसी को कोई भ्रम था, तो वो बहुत हद तक स्टेट बैंक की रिपोर्ट से दूर हो गया है. [caption id="attachment_170551" align="alignnone" width="1002"] डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपए की कीमत पिछले कुछ समय के दौरान लगातार गिरी है (फोटो: रॉयटर्स)[/caption] अखबार कहता है कि सत्ता में बैठे लोगों के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए कि बीते छह महीने के दौरान देश में होने वाला विदेशी निवेश 77 प्रतिशत कम हो गया है. अखबार इसकी वजह पाकिस्तान में मची सियासी उथल पुथल को बताता है. अखबार कहता है कि यह उथल पुथल चुनाव से पहले ही शुरू हो गई थी और चुनाव के बाद नई सरकार बनने के बाद हालात सुधरे नहीं बल्कि बिगड़ गए. अखबार की राय में सरकार ने कई अच्छे कदम उठाए, लेकिन उनके वैसे नतीजे नहीं मिले जैसी कि उम्मीद थी. CPEC की चिंता दूसरी तरफ, रोजनामा पाकिस्तान का संपादकीय है- भारत को सीपीईसी से दूर रखा जाए. अखबार ने लिखा है कि वित्त मंत्री असद उमर ने सीपीईसी का दायरा भारत तक बढ़ाने का इरादा जाहिर करते हुए कहा है कि भारत अपने निहित स्वार्थों से आगे बढ़ कर सोचे क्योंकि सीपीईसी 21वीं सदी में वैश्विक अर्थव्यवस्था का बुनियादी केंद्र होगा. अखबार कहता है कि चीन ने भारत को बहुत पहले ही 'वन बेल्ट वन रोड' का हिस्सा बनने की पेशकश की थी, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ना तो इसका हिस्सा बनने पर रजामंद हुए और ना ही उन्होंने चीन में इस विषय पर हुई कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया. अखबार ने भारत पर पाकिस्तान में तोड़फोड़ की गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाते हुए लिखा है कि अगर उसे सीपीईसी में शामिल कर लिया गया तो इससे कुछ भला नहीं होगा बल्कि बुरा ही होगा. अखबार कहता है कि विपक्षी पार्टियों को इस मामले को तुरंत संसद में उठाना चाहिए ताकि भविष्य की एक गेम चेंजर योजना किसी की कोताहियों और बचकानी सोच की भेंट ना चढ़ जाए. अब कोई यह पूछे कि भारत जब सीपीईसी में शामिल होना ही नहीं चाहता तो फिर यह सब रोना-धोना किस लिए है? [caption id="attachment_36219" align="alignnone" width="1002"] चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा के तहत पाकिस्तान के ग्वादर प्रांत में 47 अरब डॉलर का निवेश किया है[/caption] रोजनामा नवा ए वक्त भी असद उमर के बयान पर चिंता में दुबला हुआ जा रहा है. अखबार लिखता है कि असद उमर की पेशकश पर भारत अपने 'शातिर दिमाग से गौर करे तो सीपीईसी को बर्बाद और तबाह करने के लिए इसमें शामिल भी हो सकता है.' अखबार लिखता है कि भारत ने सीपीईसी के खात्मे के लिए चीन पर हर संभव दबाव डाला था, लेकिन चीन अपने पक्के इरादे पर कायम रहा. अखबार लिखता है कि भारत आग्रह भी करे तो उसे सीपीईसी का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता. अखबार के मुताबिक 'भारत की सोच पाकिस्तान के लिए नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है जो पाकिस्तान के बिल्कुल भी हित में नहीं है.' अखबार के मुताबिक सीपीईसी में भारत को शामिल होने को कहना नादानी के सिवाय कुछ नहीं है.

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